रविवार, 18 अक्तूबर 2015

इस दुर्दिन को जीत सकूँ - भारती दास

एक नारी ऐसी भी

वर्तमान नारी का जीवन, क्यों इतनी व्यथित हुई है.
व्याभिचारी-अपराधी बनकर, क्यों स्वार्थी चित्रित हुई है.
जब-जब भी वह बहकी पथ से, वो पथभ्रष्ट दूषित हुई है.

पीड़ा-दाता बनकर उसने, खुद ही जग में पीड़ित हुई है.
ये है नारी का रूप-कुरूप, क्यों विचार कुत्सित हुई है.

क्यों होता गुमराह ये जीवन, क्यों वह खुद से भ्रमित हुई है.
राष्ट्र-परिवार की मिटा के इज्जत, भाग्य भी उसकी दुखित हुई है.

युग-युग का इतिहास है कहती, नारी ही तो प्रकृति हुई है.
त्याग-तपस्या थी ऋषियों की, वो गरिमामय सृजित हुई है.

है निवेदन उस नारी से, जो कभी भी दिग्भ्रमित हुई है.
वो अपना क्षमता दिखलाए, जिससे जग में पूजित हुई है.
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तुम ना झुकना केवल कहना

ऐसी शक्ति देना हमको
कि इस पीड़ा से निकल सकूँ.

प्राणतत्व से दिग्दिगंत तक
तुझमें ही मैं बस सकूँ.

मेरे दुःख में शामिल होना
तुझसे मैं कुछ कह सकूँ.

मेरे शीश पर कर रख देना
मैं करुणा में बह सकूँ .

रो-रोकर अब तक भटकी हूँ
कब पास तुम्हारे आ सकूँ.

अब ना हो फिर विषम वेदना
कृपा तुम्हारी पा सकूँ.

मेरे भाई अब ना आयेंगे
जिसको राखी बांध सकूँ.

अपना दायाँ हाथ बढ़ाना
जिसपे आन मैं रख सकूँ.

आसूं का प्रसाद चढ़ाकर
तेरी पूजा कर सकूँ .

तुम ना झुकना केवल कहना
इस दुर्दिन को जीत सकूँ.
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काल के जाल

काल के नेत्र लाल-लाल
ओष्ठ काले भयभीत कपाल
स्मित भयंकर वेश विकराल
मंथर गति और क्रुर सी चाल
काल का प्रचंड वेग
है दुखद आवेग एक
अनगिनत आरम्भ अंत
राजा रंक और संत
साम्राज्य-राज्य का गठन
काल ने किया दमन
उदय और अवसान का
दिवस के गणमान का
ख्यातियां-उपलब्धियां
समस्त कामयाबियां
व्यक्तित्व-अभिव्यक्तियाँ
प्रचंड-कूटनीतियाँ
सौन्दर्य और सृष्टियाँ
रौंदकर-शक्तियाँ
काल बस उजाड़ता
तोड़ता-मरोड़ता
कर्ण महादानी सा
विदुर महाज्ञानी सा
अनगिनत महारथी
शूरवीर-सारथी
सबको-रौंदता हुआ त
अठखेलियाँ करता हुआ
आगोश में खींचता है वो
पीड़ा से तड़पाता वो
वेदना से झुलसाता वो
क्रूरता दिखलाता वो
मृत्यु जाल फेककर
गाल में समाकर
कर देता अस्तित्व हीन.
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कब उबरेंगे इस कलंक से

कब उबरेंगे इस कलंक से
आतंकवाद के दुषित डंक से
सरहद पर जो गोले बरसते
जन जीवन जीने को तरसते
आहत मर्माहत वो करता
तन मन में पीड़ा जो भरता
नीरस निष्ठुर क्यों वो होता
क्यों वो पशु से बदतर होता
बूढ़े पिता का आँख का तारा
छीन जाता सुत जो था प्यारा
पति से पत्नी जुदा हो जाती
माएं अपना बच्चा खोती
मानवता को छोड़नेवाले
दर्द पीड़ा को देनेवाले
परिजन को रुलानेवाले
घर परिवार को तोड़नेवाले
कबतक करेगा निर्मम चीत्कार
कबतक रोयेगा देश बेजार
इस वृति का मिटना है जरुरी
कैसे मिटे ये सोच हो पूरी
वैभव किसका, किसका पराक्रम
सबको करना मौत ही धारण
जिसने चुना है ऐसा जीवन
सद्बुद्धि दे उसको भगवान.
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गतिशीलता ही जीवन है

धरती घूमती रहती हर-पल
सूरज-चन्द्र ना रुकते इक पल
हल-चल में ही जड़ और चेतन
उद्देश्यपूर्ण ही उनका लक्षण
सदैव कार्यरत धरा-गगन है
गतिशीलता ही जीवन है

गति विकास है गति लक्ष्य है
गति प्रवाह है गति तथ्य है
धक-धक जो करता है धड़कन
मन-शरीर में होता कम्पन
दौड़ते जाते हर-दम आगे
एक-दूजे को देख कर भागे
लक्ष्य भूलकर सदा भटकते
उचित-अनुचित का भेद ना करते
पूर्णता की प्यास में आकुल
तन और मन रहता है व्याकुल
संबंधों का ताना-बाना
बुनता रहता है अनजाना
एक ही सत्य जो सदा अटल है
हर रिश्ते नातों में प्रबल है
जहाँ मृत्यु है वही विराम है
फिर ना कुछ भी प्रवाहमान है
पूर्ण अनंत ही ईश समर्पण
जैसे विलीन हो जल में जल-कण.
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श्रीमती भारती दास
जन्म स्थान - मधुबनी, बिहार
स्वर्ग विभा, अनहद कृति, साहित्य शिल्पी इत्यादि में रचनाएँ प्रकाशित।
सम्मान: स्वर्गविभा तारा ऑन लाइन द्वितीय पुरस्कार - २०१४

2 टिप्‍पणियां:

  1. पांचो कवितायेँ बहुत ही सुंदर है. गहन भाव समेटे. शुभकामनायें भारती जी.

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  2. बहुत ही सुंदर और सार्थक रचनाओं की प्रस्‍तुति।

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