सोमवार, 3 अगस्त 2015

कहानी में से थोड़ा - नीलोत्पल

जिन्दगी की इस कहानी में जाने कितने ही किरदार और भाव आते हैं और चले जाते हैं पर हर किरदार और भाव का सफर में कुछ कहे और बहुत कुछ अनकहे सा अपना ही किरदार होता है जो जिन्दगी में कुछ इस तरह सने होते हैं कि उनके एक अलग अस्तित्व का कभी भान भी नहीं होता है। पर हर किरदार और भाव नेपथ्य में खड़े होकर एक सूत्रधार की तरह जिन्दगी के परदे को गिराते और उठाते रहते हैं और जब कविता नेपथ्य के इन किरदारों और भावों को शब्दों में ढाल लेती है तो वो बस कविता ही नहीं रह जाती है बल्कि मेरी और आपकी कहानी बन जाती है जिसे हम कई बार जानते होते हैं तो कई बार अंजान और अक्सर ही नज़रंदाज कर रहे होते हैं। कुछ इस तरह की ही बातें ये कविताएँ कहना चाहती हैं। हाँलाकि ये कह देना कि ये कविताएँ बस इतना ही कहना चाहती हैं या बस ऐसे ही चाहती हैं सीमाओं में बाँधना होगा।
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क्या मैं मरने वाला हूँ ?
ऐसा कोई विचार नहीं फिलहाल मेरे पास
मैं जो पत्तों के रेशों से निकलता हूँ
अलमारी के ऊपर रखी तस्वीर-सा गिरता हूँ
टुकड़े-टुकड़े बिखरकर
देखता हूँ अपने भीतर कई रोशनियां
मेरे पास न मृत्यु है न जीवन
मैं हूँ रेशों के भीतर
और तस्वीर के खंडों में
जीवन ऐसा ही है आख़िरकार
उगना और बिखरना।
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बड़ा अजीब है अपनी कहानी कहना
जैसे किसी टहनी को तोड़ लेना
यह जाने बिना कि हम उसका
क्या करने वाले हैं
मैं अपने बारे में अस्पष्ट हूँ
सिवाय इसके कि
मेरी कहानी का कोई अंत नहीं
मैं बनता रहूँगा दिन-रात
सर्दी, कांटों, जंगलों, मेमनों,
दूरी सूचक यंत्रों, पत्थरों की अनगढ़ विरासतों,
नृत्यों तलक
मेरी कहानी टहनी की कहानी नहीं है
मैं नहीं जानता उनकी लम्बाई के बारे में
मैं नहीं जानता उसमें उग आए
पत्तों के बारे में
मेरे लिए शब्द एक धागा है
जो मुझे सीता है.....
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नहीं कहूँगा
तब भी समझ लोगी
अनकहा
साँसों के झुटपुटे में
दबी हँसी के स्वर
नहीं लाऊंगा होंठों तक
तब भी देख लोगी
पतझड़ के पत्तों की ओट से
धूप के चमकते टुकड़े
कभी समझ नहीं पाया
तुम्हारे पास ये कैसी चाहत है
जो भाँप लेती है मेरी हर इच्छा
तुम कोई जादूगरनी नहीं
जबकि
तुम्हारे नक्षत्रों की रोशनी में भींगकर भी
मैं अनकहा ही रहा….!!!
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बरसों
जिस आवाज़ को सुनकर जागा
वह आवाज़ तोतों की, चिड़ियों की,
किसी फ़िल्मी भजन या गीतों की नहीं थी
किसी गाड़ी के गुज़र जाने की भी नहीं
या बादल गरजे हों या
बारिश की बूंदें थिरकी हों धरती पर
वह आवाज़ दुनिया के तमाम नहीं के बीच
बंद कमरे में घर्राती चुपचाप
जब मैं इस चुप के बीच होता
तब पहाड़ी गर्राहट मेरे कानों को आ बेधती
लेकिन जब गेहूँ, मक्का, बाजरा, दाल या ज्वार
पिसी जाती
मुझे अहसास होता कि
मैं अपनी भेड़ें चराता
सुन रहा हूँ पहाड़ी संगीत
जबकि गाने के लिए
पर्याप्त शब्द नहीं हैं मेरे पास।
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कविता तुम्हारी आज़ादी नहीं....
पटरियों पर घना कोहरा दूर तक छितरा
ढँक लेता है
उँगलियों का फैलाव
ढलाने घिर जाती असमय की झाड़ियों से
गीले पत्थर दूर से चमकते हैं
एक पूरा जीवन
जिसे हम भूल जाते हैं
बारिश उन्हें फिर से नया कर देती है
धूल रास्तों के नज़दीक सिमट जाती है
सारे नए रास्ते बंद पड़े हैं तुम्हारे वास्ते
सभी वही तक पहुँचते हैं
जहाँ तक बताया गया
जैसे उन अनंत सवालों से
जो होते रहेंगे
और आज़ादी नज़दीक से गुज़रती रहेंगी
हाथ में आने के ठीक पहले तक
जिनके अपने सफ़र चुने हुए नहीं
वे भी एक क़िस्म की दक्षता रखते हैं
कविता का एक अर्थ घिर जाना भी है।
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तुम और मैं
बंद परदे से खोली गई खिड़की,
एक बंद किताब जिसे दीमकें
चाटती हैं अलमारियों में
और हम पन्ने-दर-पन्ने
होते जाते है अदृश्य।
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पानी में गोता लगाती मछलियाँ
पानी नहीं अपनी निष्क्रियता को काटती है
यह सौदा बड़ा घाटे का है
कि एक किताब के अंदर
हम नहीं रहते
कई स्मृतियों को पार करने के बाद
हम अंश है जले हुए कागज़ों के।
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नीलोत्पल 

जन्म: 23 जून, 1975, रतलाम, मध्यप्रदेश. 
दो काव्य संग्रह 'अनाज पकने का समय' व 'पृथ्वी को हमने जड़ें दी' 
अनेकों साहित्यिक पत्रिकाओं में प्रकाशित
अनेकों पुरस्कार
सम्प्रति: मेडिकल रिप्रेज़ेंटेटिव

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