शनिवार, 20 सितंबर 2014

शायद ये सफ़र यहीं तक था

राह हमारी अलग हुई अब
शायद ये सफ़र यहीं तक था।

साथ चलेंगे बातें की थी
अनजाने से अनजाने में
आँख खुली तो देखा पाया
छुपकर निकले बेगाने से।
शायद ये सफ़र यहीं तक था॥

दिन भी निकला रातों जैसा
आँखों में कोई रतौंधी सी
हाथों से छूकर जब देखा
काली पट्टी बंधी निकली।
शायद ये सफ़र यहीं तक था॥

© राजीव उपाध्याय


14 टिप्‍पणियां:

  1. bahut hi sundar prstuti. aapka blog smilit kiya ja chuka hai -Blog Kalash pr.

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    1. जी बहुत-बहुत धन्यवाद कि आपने समय निकालकर टिप्पणी की।

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  2. इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.

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  3. आपको बहुत-बहुत धन्यवाद कि आपने मेरी रचना को ये सम्मान प्रदान किया।

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  4. सुन्दर प्रस्तुति !
    आज आपके ब्लॉग पर आकर काफी अच्छा लगा अप्पकी रचनाओ को पढ़कर , और एक अच्छे ब्लॉग फॉलो करने का अवसर मिला !

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    1. बहुत-बहुत धन्यवाद संजय जी कि आपने मेरी रचनाओं समय दिया।

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  5. गहन एवं अर्थपूर्ण ! बहुत सुन्दर प्रस्तुति !

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