काश
दुनिया के तमाम मुल्क़
क़ायम रख पाते अपनी ताक़तें
अपनी अस्मतें
रहते अपने दायरों में,
अपनी-अपनी ज़मीनों पर ठहरते
ज़ोरों से कमज़ोरों पर ठहरते
ज़ोरों से कमज़ोरों के ज़ोर बनते
सूर्य-दिशा के देश
सूर्यास्तों के शिकार न होते।
निराशाओं की कोश से जन्मे
ईश्वरों की तलाश में न रोते
न अपने अन्दरूनी मनुष्य से बिछुड़ते
न अपनी मृत्यु पर
अपने ही आँसुओं में
अपने ही चेहरों को भिगोते!
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दुनिया के तमाम मुल्क़
क़ायम रख पाते अपनी ताक़तें
अपनी अस्मतें
रहते अपने दायरों में,
अपनी-अपनी ज़मीनों पर ठहरते
ज़ोरों से कमज़ोरों पर ठहरते
ज़ोरों से कमज़ोरों के ज़ोर बनते
सूर्य-दिशा के देश
सूर्यास्तों के शिकार न होते।
निराशाओं की कोश से जन्मे
ईश्वरों की तलाश में न रोते
न अपने अन्दरूनी मनुष्य से बिछुड़ते
न अपनी मृत्यु पर
अपने ही आँसुओं में
अपने ही चेहरों को भिगोते!
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काश ऐसा हो पाता।
जवाब देंहटाएंबहुत विचारणीय कविता है ये जोशी साहब की।
आभार।
नई रचना पौधे लगायें धरा बचाएं
आपकी इस प्रस्तुति का लिंक 15-07-2021को चर्चा – 4,126 में दिया गया है।
जवाब देंहटाएंआपकी उपस्थिति मंच की शोभा बढ़ाएगी।
धन्यवाद सहित
दिलबागसिंह विर्क
वाह!गज़ब।
जवाब देंहटाएंसादर