बुधवार, 14 जुलाई 2021

काश - श्रीकान्त जोशी

काश
दुनिया के तमाम मुल्क़
क़ायम रख पाते अपनी ताक़तें
अपनी अस्मतें
रहते अपने दायरों में,
अपनी-अपनी ज़मीनों पर ठहरते
ज़ोरों से कमज़ोरों पर ठहरते
ज़ोरों से कमज़ोरों के ज़ोर बनते
सूर्य-दिशा के देश
सूर्यास्तों के शिकार न होते।
निराशाओं की कोश से जन्मे
ईश्वरों की तलाश में न रोते
न अपने अन्दरूनी मनुष्य से बिछुड़ते
न अपनी मृत्यु पर
अपने ही आँसुओं में
अपने ही चेहरों को भिगोते!
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श्रीकान्त जोशी




3 टिप्‍पणियां:

  1. काश ऐसा हो पाता।
    बहुत विचारणीय कविता है ये जोशी साहब की।
    आभार।
    नई रचना पौधे लगायें धरा बचाएं

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  2. आपकी इस प्रस्तुति का लिंक 15-07-2021को चर्चा – 4,126 में दिया गया है।
    आपकी उपस्थिति मंच की शोभा बढ़ाएगी।
    धन्यवाद सहित
    दिलबागसिंह विर्क

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