गुरुवार, 19 मार्च 2015

कभी कभी ये क्यों होता है - विवेक त्रिपाठी

एक कविता जो अच्छी लगी आपकी नज़र जिसे विवेक त्रिपाठी ने रचा हैं
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कभी कभी ये क्यों होता है
की दिल चुपके से रोता है
आँखों में अश्क भर आता है
पलकों को भीगाता हैं
तन्हाई तडपाती है
मुझे तेरी याद दिलाती है
दिल के कोने में तेरी
तस्वीर उभर सी जाती है
मै जितनी बार मिटाता हूँ
ये और मुखर हो जाती है

खुद से मै फिर लड़ता हूँ
फिर खुद को समझाता हूँ
कभी कभी हंस पड़ता हूँ
फिर से मै रो पड़ता हूँ

यादों की आंधी आती है
मुझको उडा ले जाती है
तेरे घर के आँगन में
मुझको खड़ा देती है
एक महफ़िल है सन्नाटे सी
एक हलचल है ख़ामोशी सी
मै तेरा दामन थामे
तेरे कमरे में जाता हूँ
दीवारों पर तस्वीरे है
मै उनमे खो जाता हूँ

तू मुझे हिलाकर जगाती है
फिर अपने पास बुलाती है
मेरे कंधे पर रख कर सर
तू अपना हाल बताती है
तेरे शब्दों के रस से मै
कुछ बेशुध सा हो जाता हूँ
अपनी जुल्फों के साए में
तू मुझको सुलाती है
फिर किस्से कहानी और प्यार की बातें
तू मुझको बतलाती है

मै ठहरा पागल दीवाना
तेरी बात में मुझे ना आना
मै फिर हंस जो देता हूँ
तू मुझसे रूठ सी जाती है
मै तुझको मनाता हूँ
बागो में ले जाता हूँ
तुझपे ही गीत मै लिखता हूँ
और तुझको ही सुनाता हूँ
गुस्से में हंस जो देती है तू
मै दुनिया हर सा जाता हूँ
तू मुझको गले लगाती है
मुझे जीना सिखलाती है

तभी अचानक कौन
है आता
तुझको मुझसे दूर ले जाता
मै तेरा नाम बुलाता हूँ
तुझको आवाज़ लगाता हूँ
तेरे पीछे मै आता हूँ
लेकिन तू खो जाती है

आसमान पर काले बादल
ऐसे यूँ घिर आते है
तेरी वेदना की रह रह कर
हमको टीस दिलाते है
तू दूर मुझसे जो होती है
फिर घनघोर बारिश होती है
बारिश में भींग सा जाता हूँ
मै घुटनों पर गिर जाता हूँ
बारिश की बूदें गालो से
मेरे होंठो तक आती है

पर ये तब क्या होता है
क्या पानी नमकीन सा होता है
मै तब चोंक सा जाता हूँ
यादों से बाहर आता हूँ
खुद को घर के कमरे में
आज फिर तन्हा सा पाता हूँ

मेरे मन में फिर से
एक सवाल सा उभरता है
सुबह का सूरज जल्दी जल्दी
शाम का सूरज क्यों होता है

कभी कभी ये क्यों होता है
शाम का सूरज ढल जाता है
कभी कभी ये क्यों होता है
की दिल चुपके से रोता है
-----------विवेक त्रिपाठी

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