सोचता था, आदमी हूँ मैं अच्छा
पर,
जब नज़र उठा कर देखा, तो मैं कोई और था।
क्या पता था, कि कुछ और हो गया हूं, कुछ इन सालों में।
ना आइना पहचानता, ना मैं
कि कौन, क्या और कहाँ गया इन सालों में।
जो पहचान थी पुरानी, वो जाने कहाँ गयी,
मैं सोचता हूँ हर पल ये, क्या चाहते थीं यही;
मौन है मन आजकल, बातें नहीं बनाता,
उदासियों को अपने, पैरों तले दबाता,
फिर भी कोई जवाब, मिलता नहीं,
तब जाकर, होता यकीन,
badhiya
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत धन्यवाद अनुशा जी।
हटाएंसुंदर !
जवाब देंहटाएंहार्दिक धन्यवाद।
हटाएंबहुत सुन्दर अंतर्मन का मन्थन
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत धन्यवाद मोहन जी। बस एक प्रयास है।
हटाएंपला पल बदलता हा इंसान और उसको एहसास भी नहीं होता ... यही तो विडंबना है ...
जवाब देंहटाएंजी सहमत हूँ। इसी भाव को शब्द दिया हूँ। बहुत बहुत धन्यवाद दिगंबर जी।
हटाएंबहुत सुंदर
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत धन्यवाद सुमन जी।
हटाएंBahut sunder badlaaw prakriti ka niyam hai jo hota rahna chahiye !!
जवाब देंहटाएंजी सहमत हूँ। बहुत बहुत धन्यवाद।
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