शुक्रवार, 17 अक्तूबर 2014

सोचता था, आदमी हूँ मैं अच्छा

सोचता था, आदमी हूँ मैं अच्छा
पर,
जब नज़र उठा कर देखा, तो मैं कोई और था।


क्या पता था, कि कुछ और हो गया हूं, कुछ इन सालों में
कि कौन, क्या और कहाँ गया इन सालों में

जो पहचान थी पुरानी, वो जाने कहाँ गयी,
मैं सोचता हूँ हर पल ये, क्या चाहते थीं यही;
मौन है मन आजकल, बातें नहीं बनाता,
उदासियों को अपने, पैरों तले दबाता,
फिर भी कोई जवाब, मिलता नहीं,
तब जाकर, होता यकीन,

12 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत सुन्दर अंतर्मन का मन्थन

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    1. बहुत बहुत धन्यवाद मोहन जी। बस एक प्रयास है।

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  2. पला पल बदलता हा इंसान और उसको एहसास भी नहीं होता ... यही तो विडंबना है ...

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    1. जी सहमत हूँ। इसी भाव को शब्द दिया हूँ। बहुत बहुत धन्यवाद दिगंबर जी।

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  3. Bahut sunder badlaaw prakriti ka niyam hai jo hota rahna chahiye !!

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